दुनिया में दो तरह के लोग होते है अच्छे या बुरे, बस। इंसानों में बस इतना ही फर्क होता है। कोई हिन्दु,मुसलमान,सिख या ईसाइ नहीं होता। आ॓शो भी कहते हैं मैं धार्मिकता सिखाता हूं धर्म नहीं। हमारा धर्म प्रेम करना है,परमात्मा को पाना हैं। मज़हब के नाम पर खून बहाना नहीं। धर्म एक आस्था है वो किसी के लिए भी हो सकती है।
रास्ते में, एक मासूम बच्चे को
मंदिर के सामने
हाथ उठा
प्रार्थना करते देखा
हाथ ठीक वैसे ही जुड़े थे
जैसे खुदा की इबादत में होते हैं
क्या लोगों ने इसे
समझाया नहीं
भगवान- खुदा अलग है
या यही
मासूमियत प्रेम है
भगवान है...
खुदा है...
जो आज इंसानो
से
जुदा है।
अभी कुछ दिन पहले खबर देखी हवाई यात्रा के दौरान एक लड़की ने बगल में बैठे मुस्लिम यात्री की शिकायत पुलिस को कर दी। उसे शक था कि यह मुसलमान आतंकवादी हो सकता है क्योकीं वह कह रहा था (हवाई जहाज उड़ने वाला है, वह भी उड़ने वाला है) एक तो मुसलमान ऊपर से ऐसी भाषा किस को शक नहीं होता। बस क्या था हड़कंप मच गया फौरन उसे कस्टडी में लिया गया। एक लंबी पूछताछ के बाद,और उसके परिवार वालों की दलीले सुनने के बाद,उसे निदोर्ष पा छोड़ दिया गया।
इससे मिलती-जुलती दूसरी घटना तो मेरे आंखों के सामनें की ही है। मैट्रो स्टेशन पर मेरे बाद सामान की चैकिंग में एक सुन्दर कश्मीरी मुसलमान लड़का फोन पर किसी से आम तौर पर बात कर रहा था, पुलिसवालों ने उसे देखते ही अलग कोने में ले जाकर विशेष तौर पर चैकिंग की। दोनों ही घटनाएं दिलचस्प है। सच कहूं तो उस वक्त मुझे हंसी भी आई।
लेकिन अगर मामले की गंभीरता को देखा जाए तो आम लोगों के दिल की स्थिती क्या हो चुकी है। हमारे मन में दहशत इस कदर घर चुकी है किसी का पहनावा,भाषा हमें इतना डरा सकता है कि किसी मुसलमान को देख हमें उसमें आंतकवादी नज़र आने लगे। क्यों ना हो आए दिन मिलने वाली खबरें, आतंकियों की नज़रे बाजार पर, आतंकवादी मेट्रो स्टेशन पर हमला कर सकते हैं, आंतकवादी बच्चों के स्कूल भी उड़ा सकते है। अब हम डर चुके हैं, इतनी जाने खोकर।
कौन हैं ये आंतकवादी....क्यों इस कदर मासूमों का खून बहाते है..प्रश्न का उत्तर सब जानते हुए भी खामोश हैं। आंतकवादियों की ट्रनिंग में सिखाया जाता है। जो जितनी ज्यादा जानें लेगा उसे ज़ेहाद के प्रति उतना ईमानदार समझा जाएगा,और जो धर्म का काम करते हुए शहीद हो जाता है उसे जन्नत नसीब होगी। उसके परिवार वालों का हर तरह से ख्याल रखा जाएगा। किसी किस्म की कोई परेशानी नहीं होगी, पैसा कमाने के लिए कौई जद्दोजहद नहीं।
26/11 का हमला कौन भूल सकता है, हाल ही में उसके आरोपी आतंकवादी कसाब को फांसी देने का फैसला सुनाया गया। फैसले को सुन बस यही ख्याल आया (आज कसाब कल कौन?) ये आतंकवादी तो मात्र कठपुतली है, डोर तो किसी और के हाथ में हैं। गरीब मुसलमानों को ज़ेहाद के नाम पर गलत शिक्षा दे ये वहशी अपने फायदे के लिए एक आम आदमी को दूसरों का खून करने वाली मशीन बना देते हैं। ज़ेहाद,धर्म, पैसों,का हवाला दें ये उनकी मजबूरी का फायदा उठाते हैं।
एक आम आदमी क्या चाहता है, दो जून खाना जुटाने की जद्दोजहद वाला आदमी। आधारभूत आवश्यकताओं की पूर्ती में जी- जान से लगा आदमी, चैन की सांस चाहने वाला आदमी कितनी ळड़ाई चाहता है। कितने लोग जे़हाद के पीछे पागल है। सियासत की बीसात पर बाजी खेलने वाले चंद लोग, ना जानें कितने कसाब जैसे लोगों की जिंदगी के साथ खेल जाते हैं और हम जड़ खत्म करने की बजाय बस इस पर चर्चा करते रह जाते हैं।
दहशत के माहौल में इस आम आदमी का दम घुटता है,वो धर्म या जाति के आधार पर कोई लड़ाई नहीं चाहता।... और परिवार गवांने की हिम्मत नहीं है उसमें। कौई तो आये, इसे शांति व सुरक्षा का भरोसा दे...।
Monday, May 24, 2010
Thursday, May 20, 2010
बर्बरता की पराकाष्ठा
रोज़ एक ही खबर, नक्सलवादियों ने हमारे ...इतने जवान मार गिराये, नक्सलवादियों ने बस जलाई, बे-गुनाह बच्चों व औरतों पर कहर बरपाया, रेल पटरियां उड़ाई और ना जाने क्या..क्या। अखबार की सुर्खियों में भी नक्सलियों का एक बड़ा कोना। चर्चाओं का विषय भी नक्सलवाद। परिणाम नदारद, वो अपना काम कर रहे हैं और हम बहस...जाने क्या होगा...
लाल सलाम बेबस सरकार,कुछ दिन पहले ही मैनें सरकार की विवशता का जिक्र किया था। एक बार फिर दंतेवाड़ा में इंसानियत शर्मसार हुई है।
फर्क सिर्फ इतना है कि खाकी वर्दी के साथ इस बार नक्सलियों ने आम लोगों को भी निशाना बनाया है। नक्सलियों की बर्बरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस बस को नक्सलियों ने अपना निशाना बनाया उसमें बच्चें और औरतें काफी संख्या में मौजूद थे। बहरहाल 40से ज्यादा लोग इस धमाके में मारे गये और आधे दर्जन घायल अवस्था में जिंदगी और मौत से जूझ रहें हैं।
दंतेवाड़ा,जिसका जिक्र पुराणों में दंडकारण्य के नाम से किया जाता है जहां कभी भगवान राम वनवास के दौरान रूके थे। जहां प्राकृतिक खूबसूरती कभी लोगों को लुभाती थी आज उसी धरती को नक्सलियों ने लहूलुहान कर दिया। रोज़ ही नक्सलियों का ये खूनी तांडव कभी दंतेवाड़ा तो कभी मिदनापुर तो कभी चतरा में जारी है। सरकार असहाय की तरह देख रही है। राज्य और केन्द्र दोनो एक दूसरे के पाले में गेंद डाल अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाना चाहते है।
सवाल यह है कि क्या वाकई नक्सलवाद या माआ॓वाद का मूल उद्धेश्य यही था जो आज वो कर रहे हैं। क्या फर्क है एक नक्सलवादी में और आंतकवादी में। एक दुश्मन ऐसा है जो सीमा पार बैठा है जिसे हम जानते है,जिससे लड़ने की वजह भी हमारे पास है...पर उसका क्या करें..जो अपना है...घर में बैठा है...हम में से एक है..करता वही है जो एक आतंकवादी करता है। मासूम इंसानों का खून।
नक्सलवादी जिस तरह से अपने ही लोगों का रोज खून बहा रहे है उससे ये बहस तेज हो गई है कि नक्सलवाद और आतंकवाद का फर्क अब मिट गया है। जिस बर्बरता के साथ नक्सलवादियों ने दंतेवाड़ा में पहले 76 जवानों का और अब 40से ज्यादा आम लोगों का खून बहाया है उससे साफ है कि नक्सलवादियों की लड़ाई अब दबे कुचले आदिवासियों की नहीं रह गई है। उसका उद्धेश्य नक्सलवाद की आड़ में अराजकता फैलाना है। अब ये दलील दी जाने लगी है कि जिन आदिवासियों को विकास की बयार अब तक छू भी नहीं पाई है और उसके पास ए के 47जैसे राइफल कहां से आ गये..आखिर कौन सिंडिकेट इन नक्सलवादियों के पीछे काम कर रहा है जो इन्हें दो वक्त की रोटी तो नहीं दे पाता पर हथियार जरूर मुहैया करा देता हैं।
वजह साफ है मुट्ठी भर लोग अपने फायदे के लिए आदिवासियों और पिछड़े लोगों को पूरी व्यवस्था के खिलाफ लड़ने के लिए उकसा रहे हैं। शायद वो भूल जाते है कि गोली कहीं से भी चले मरते दोनों तरफ के लोग है।
नक्सलवाद के पनपने और पसरने का एक कारण राजनीतिक भी है। आजादी के 60साल बाद भी समाज का एक बड़ा तबका जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से बेज़ार है। विकास की बयार दिल्ली और शहरों तक ही सीमित है। सरकारी योजनाएं सुनने में तो लुभावनी लगती है पर इसका फायदा मंत्रियों और बाबूओं तक ही सीमित रह जाता है। नेताओं के खोखले वादे और स्वार्थ ने नक्सलवाद को और सींचा है।
आज भी जब नक्सलवादी बर्बरता का नंगा नाच कर रहे है,वहीं राजनीतिक दल और हमारे नेता एक दूसरे को कोसने में लगे है।
कहा जा सकता है अब उनके खिलाफ कोई एक रणनीति तय नहीं की जा सकती। हमें भी अपनी रणनीति बदलनी होगी।
लाल सलाम बेबस सरकार,कुछ दिन पहले ही मैनें सरकार की विवशता का जिक्र किया था। एक बार फिर दंतेवाड़ा में इंसानियत शर्मसार हुई है।
फर्क सिर्फ इतना है कि खाकी वर्दी के साथ इस बार नक्सलियों ने आम लोगों को भी निशाना बनाया है। नक्सलियों की बर्बरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस बस को नक्सलियों ने अपना निशाना बनाया उसमें बच्चें और औरतें काफी संख्या में मौजूद थे। बहरहाल 40से ज्यादा लोग इस धमाके में मारे गये और आधे दर्जन घायल अवस्था में जिंदगी और मौत से जूझ रहें हैं।
दंतेवाड़ा,जिसका जिक्र पुराणों में दंडकारण्य के नाम से किया जाता है जहां कभी भगवान राम वनवास के दौरान रूके थे। जहां प्राकृतिक खूबसूरती कभी लोगों को लुभाती थी आज उसी धरती को नक्सलियों ने लहूलुहान कर दिया। रोज़ ही नक्सलियों का ये खूनी तांडव कभी दंतेवाड़ा तो कभी मिदनापुर तो कभी चतरा में जारी है। सरकार असहाय की तरह देख रही है। राज्य और केन्द्र दोनो एक दूसरे के पाले में गेंद डाल अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाना चाहते है।
सवाल यह है कि क्या वाकई नक्सलवाद या माआ॓वाद का मूल उद्धेश्य यही था जो आज वो कर रहे हैं। क्या फर्क है एक नक्सलवादी में और आंतकवादी में। एक दुश्मन ऐसा है जो सीमा पार बैठा है जिसे हम जानते है,जिससे लड़ने की वजह भी हमारे पास है...पर उसका क्या करें..जो अपना है...घर में बैठा है...हम में से एक है..करता वही है जो एक आतंकवादी करता है। मासूम इंसानों का खून।
नक्सलवादी जिस तरह से अपने ही लोगों का रोज खून बहा रहे है उससे ये बहस तेज हो गई है कि नक्सलवाद और आतंकवाद का फर्क अब मिट गया है। जिस बर्बरता के साथ नक्सलवादियों ने दंतेवाड़ा में पहले 76 जवानों का और अब 40से ज्यादा आम लोगों का खून बहाया है उससे साफ है कि नक्सलवादियों की लड़ाई अब दबे कुचले आदिवासियों की नहीं रह गई है। उसका उद्धेश्य नक्सलवाद की आड़ में अराजकता फैलाना है। अब ये दलील दी जाने लगी है कि जिन आदिवासियों को विकास की बयार अब तक छू भी नहीं पाई है और उसके पास ए के 47जैसे राइफल कहां से आ गये..आखिर कौन सिंडिकेट इन नक्सलवादियों के पीछे काम कर रहा है जो इन्हें दो वक्त की रोटी तो नहीं दे पाता पर हथियार जरूर मुहैया करा देता हैं।
वजह साफ है मुट्ठी भर लोग अपने फायदे के लिए आदिवासियों और पिछड़े लोगों को पूरी व्यवस्था के खिलाफ लड़ने के लिए उकसा रहे हैं। शायद वो भूल जाते है कि गोली कहीं से भी चले मरते दोनों तरफ के लोग है।
नक्सलवाद के पनपने और पसरने का एक कारण राजनीतिक भी है। आजादी के 60साल बाद भी समाज का एक बड़ा तबका जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से बेज़ार है। विकास की बयार दिल्ली और शहरों तक ही सीमित है। सरकारी योजनाएं सुनने में तो लुभावनी लगती है पर इसका फायदा मंत्रियों और बाबूओं तक ही सीमित रह जाता है। नेताओं के खोखले वादे और स्वार्थ ने नक्सलवाद को और सींचा है।
आज भी जब नक्सलवादी बर्बरता का नंगा नाच कर रहे है,वहीं राजनीतिक दल और हमारे नेता एक दूसरे को कोसने में लगे है।
कहा जा सकता है अब उनके खिलाफ कोई एक रणनीति तय नहीं की जा सकती। हमें भी अपनी रणनीति बदलनी होगी।
Wednesday, May 12, 2010
खाप का खौफ
कई परिवारों को बर्बाद करने वाला और कई मासूम जोड़ो की गोत्र के नाम पर बलि देने वाले खाप का खौफ जारी है। हरियाणा के इन तुगलकी फरमानों और कानून को ठेंगा दिखाते ये पंच सभ्य समाज को लगातार शर्मसार करता आ रहे है। हालांकि हमारे हिन्दू समाज में संगोत्रिय विवाह स्वीकार्य नहीं हैं। विवाद आधुनिकता और परंपराओं का है। पर परंपराओं के नाम पर किसी की जान लेना भी कहां का न्याय है...।
पंच, परंपराओं का हवाला दे मासूमों की जिंदगी से खेल रहे है। कभी ये पति पत्नी को भाई-बहन घोषित कर देते है, तो कभी ये खाप का फरमान ना मानने वाले मनोज और बबली को गोत्र के नाम पर मौत के घाट उतार देते है। हरियाणा की गलियों में खाप पंचायत के इस मध्ययुगीन तानाशाही फरमानों की हज़ारों कहानियां है। पर इन पर सवाल उठाने वाला कोई नहीं, वजह साफ है कि सियासत करने वालों को वोट बैंक की मजबूरी है और सामाजिक रूढ़िवादी परंपराओं के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत किसी के पास नहीं।
जहां महानगर और शहरों में रहने वाले लोगों के लिए इक्कीसवीं सदी आ चुकी है। देश में विकास और आधुनिकता की बयार बह रही है। बुद्धिजीवी इस विषय पर टी.वी. चैनलों पर बहस कर रहे हैं, नेता लोग प्रेस वार्ता कर अपने आप को चिंतित दिखाने की कोशिश कर रहे है।... तो हर जगह बहस और वार्ताओं का दौर हैं और इन सबके बीच कोई पीछे छूट गया तो वह है 'गांव' जो आज भी संगोत्रिय विवाह को पचा नहीं पा रहा है। अगर भारत जैसे देश में भी इस तरह के तुगलकी फरमान जारी होने लगे तो तालिबान और भारत में क्या फर्क रह जाएगा।
खाप पंचायत ने जो रास्ता इख्तियार किया है उसे सही नहीं माना जा सकता। उनका फरमान हिंसा का है। हमारे समाज में किसी को जान से मारने का अधिकार नहीं मिल सकता। फिर पंचायतों का गुंडाराज कैसा? खाप पंचायत अगर किसी बात को सही नहीं मानता तो संवैधानिक तौर पर अपनी बात रख सकता है न की मासूमों की जान लेकर जबरदस्ती अपनी बात मनवाने की कोशिश।
बहरहाल इसका एक पहलू सियासत भी है। मामला हिन्दू मैरिज एक्ट में संशोधन की मांग का है। हरियाणा की राजनीति भी दो हिस्सों में बंट गई है। कुछ ने चुप रहने में अपनी भलाई समझी और कुछ लोगों को इसमें अपना वोट बैंक नजर आने लगा।
आ॓म प्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल खुलकर खाप के समर्थन में उतर आई है। कांग्रेस युवा नेता एंव 'प्रगतिशीलता' के पहरूए नवीन जिंदल ने भी जिस तरह खाप का समर्थन किया यह एक शर्मनाक सोच को दर्शाता है। वहीं कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिहं हुड्डा ने खाप को ज्यादा तवज्जों ना देते हुए उसे एक सामाजिक संगठन बताया है। चौटाला ने मांग की है कि हिन्दू मैरिज एक्ट में तत्काल बदलाव की जरूरत है,ताकि युगल प्रेमियों को संगोत्रिय विवाह से रोका जा सके।
लेकिन प्रेम किसी के रोके कहां रूका है,उसे कोई बंधन या परंपरा कहां रोक सकती है वो तो निश्चल बहती पवित्र धारा है जिसका मकसद समुद्र में मिल शांत हो जाना है।
ना जाने क्यों
शहर में हर कोई, हमसे खफा है
क्या करें हर किसी से हमारी
फितरत नहीं मिलती।
...खैर सब अपनी-अपनी बीन बजा रहे है लेकिन कहीं ऐसा ना हो इस बीच खाप का सांप प्रेमी युगलों को डंसता रहे।
पंच, परंपराओं का हवाला दे मासूमों की जिंदगी से खेल रहे है। कभी ये पति पत्नी को भाई-बहन घोषित कर देते है, तो कभी ये खाप का फरमान ना मानने वाले मनोज और बबली को गोत्र के नाम पर मौत के घाट उतार देते है। हरियाणा की गलियों में खाप पंचायत के इस मध्ययुगीन तानाशाही फरमानों की हज़ारों कहानियां है। पर इन पर सवाल उठाने वाला कोई नहीं, वजह साफ है कि सियासत करने वालों को वोट बैंक की मजबूरी है और सामाजिक रूढ़िवादी परंपराओं के खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत किसी के पास नहीं।
जहां महानगर और शहरों में रहने वाले लोगों के लिए इक्कीसवीं सदी आ चुकी है। देश में विकास और आधुनिकता की बयार बह रही है। बुद्धिजीवी इस विषय पर टी.वी. चैनलों पर बहस कर रहे हैं, नेता लोग प्रेस वार्ता कर अपने आप को चिंतित दिखाने की कोशिश कर रहे है।... तो हर जगह बहस और वार्ताओं का दौर हैं और इन सबके बीच कोई पीछे छूट गया तो वह है 'गांव' जो आज भी संगोत्रिय विवाह को पचा नहीं पा रहा है। अगर भारत जैसे देश में भी इस तरह के तुगलकी फरमान जारी होने लगे तो तालिबान और भारत में क्या फर्क रह जाएगा।
खाप पंचायत ने जो रास्ता इख्तियार किया है उसे सही नहीं माना जा सकता। उनका फरमान हिंसा का है। हमारे समाज में किसी को जान से मारने का अधिकार नहीं मिल सकता। फिर पंचायतों का गुंडाराज कैसा? खाप पंचायत अगर किसी बात को सही नहीं मानता तो संवैधानिक तौर पर अपनी बात रख सकता है न की मासूमों की जान लेकर जबरदस्ती अपनी बात मनवाने की कोशिश।
बहरहाल इसका एक पहलू सियासत भी है। मामला हिन्दू मैरिज एक्ट में संशोधन की मांग का है। हरियाणा की राजनीति भी दो हिस्सों में बंट गई है। कुछ ने चुप रहने में अपनी भलाई समझी और कुछ लोगों को इसमें अपना वोट बैंक नजर आने लगा।
आ॓म प्रकाश चौटाला की इंडियन नेशनल लोकदल खुलकर खाप के समर्थन में उतर आई है। कांग्रेस युवा नेता एंव 'प्रगतिशीलता' के पहरूए नवीन जिंदल ने भी जिस तरह खाप का समर्थन किया यह एक शर्मनाक सोच को दर्शाता है। वहीं कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिहं हुड्डा ने खाप को ज्यादा तवज्जों ना देते हुए उसे एक सामाजिक संगठन बताया है। चौटाला ने मांग की है कि हिन्दू मैरिज एक्ट में तत्काल बदलाव की जरूरत है,ताकि युगल प्रेमियों को संगोत्रिय विवाह से रोका जा सके।
लेकिन प्रेम किसी के रोके कहां रूका है,उसे कोई बंधन या परंपरा कहां रोक सकती है वो तो निश्चल बहती पवित्र धारा है जिसका मकसद समुद्र में मिल शांत हो जाना है।
ना जाने क्यों
शहर में हर कोई, हमसे खफा है
क्या करें हर किसी से हमारी
फितरत नहीं मिलती।
...खैर सब अपनी-अपनी बीन बजा रहे है लेकिन कहीं ऐसा ना हो इस बीच खाप का सांप प्रेमी युगलों को डंसता रहे।
Sunday, May 9, 2010
'मेरी' सोनिया...
वैसे सोनिया को मैं अक्सर याद करती हूं, और जब याद आती है तो एक मलाल रह जाता है काश मैनें किसी की ना सुनी होती तो आज वो मेरे पास होती।
सोनिया मेरी बुआ की बेटी। तलाकशुदा बुआ मानसिक तौर पर बीमार थी जिसकी वजह से घर में उन्हें रहने के लिए एक अलग कमरा दे दिया गया था। परिवार की आ॓र से उन्हें हर मदद मिलती थी। जिम्मेदारी निभाने में असमर्थ बुआ मां बन गई, बेटी हुई, नाम रखा गया सोनिया। सबके जह़न में एक ही सवाल था बच्ची कौन पालेगा, तय हुआ बेटी को किसी जरूरत मंद परिवार को दे दिया जाए। पर मां तो मां होती है। मेरी बुआ ने सोनिया को किसी को भी देने से इंकार कर दिया।
गंदगी के कारण बुआ के कमरे में कोई जाना पसंद नहीं करता था। अब बुआ बच्ची को अपनें सीने से आधे लटकाये गलियों में घूमती नजर आने लगी। सब कुछ होते हुए भी उसे मांग कर खाने की आदत पड़ गई थी। कुछ लोग हंसी भी उड़ाते थे। सोनिया सबके लिए दुखद पर मेरे लिए खुशी की बात थी। खेलने के लिए एक प्यारी सी गुड़िया।
मुझे बच्चों के साथ वक्त बिताना हमेशा से ही अच्छा लगता है। मैनें धीरे-धीरे उसे अपने घर लाना शुरू कर दिया और उसके छोटे मोटे काम भी करने लगी। अपने हाथ से खाना खिलाने,नहलाने,सुलाने तक हर ममत्व का अनुभव किया मैंने। बाजार से उसके लिए नये कपड़े, सैंडिल, खिलौने सब कुछ खरीदे जिसकी उसे जरूरत थी। मैं चाहती थी वो पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो। लेकिन ये मेरी बुआ के साथ रहने पर संभव नहीं था वो अपनी बच्ची की देखभाल नहीं कर सकती थी।
अजीब सा लगता था जब शाम होते ही सोनिया कहती थी मुझे मेरी मां के पास ले चलो। मुझे याद है रिक्शा पर अक्सर वो मेरी गोद में सिर रख सो जाती थी। मैं भी अपने स्नेह से उसे सींचने का प्रयास कर रही थी। घर पहुंचते ही वो अपनी मां से लिपट जाती और उछल-उछल कर मेरी बातें बताती,उसने मेरी बुआ से शिकायत भी की मैं उसे थोड़े छोटे कपड़े पहनाती हूं।
सोनिय मेरी आदत बन गई थी, हम साथ में गुड़ियों से खूब खेलते। लेकिन कॉलेज के साथ सोनिया के ज्यादा वक्त दे पाना अब थोड़ा मुश्किल हो रहा था। एक दिन परीक्षा की वजह से मुझे घर आने में थोड़ी देर हो गई। सोनिया घर के बाहर मेरा इंतजार कर रही थी। लाल रंग का लहंगा पहने हाथ में गुड़िया लिए। मुझे देखते ही वो मुझसे लिपट कर रोने लगी आ॓र गुस्सा करने लगी मैं इतनी देर तक उसे अकेले छोड़ कर क्यूं चली गई। आज भी उसका लिपटना मुझे भावुक कर देता है।
सर्दी का समय था मैनें अपनी मां से कहा क्या हम उसे अपने साथ नहीं रख सकते। मैं उसे पढ़ाना चाहती हूं। मां ने कहा, हम एक बच्ची को उसकी मां से अलग कैसे कर सकते है। मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था...। बस हमेशा यही सोचती काश किसी तरह वो मेरे पास रह जाए।
वक्त बीत रहा था और कुछ समझ नहीं आ रहा था। एक दिन शाम को मैंने उसे अपनी मां की उंगली पकड़ कर जाते हुए देखा, बहुत खुश नजर आ रही थी सोनिया। बस मैं यही सोच पायी उसको कभी उसकी मां से अलग नहीं करूंगी। पर क्या पता था मैं उसे आखिरी बार देख रही हूं।
सुबह पता चला उसकी मां उसे कहीं ले गई। हमने बहुत ढूढां वो नहीं मिली। किसी ने बताया वो हरिद्वार की बस में बैठ कर कहीं चली गई। हमने हरिद्वार में भी बहुत ढूंढा पर...अब वो जा चुकी थी...शायद हमेशा के लिए। आज भी भीड़ में मेरी आंखे हमेशा कुछ ढूंढती रहती है। काश मैनें उसे जाने ना दिया होता...शायद वो मेरे पास होती।
आज मदर्स डे पर मेरी भगवान से यही कामना है 'मेरी' बच्ची हमेशा खुश व सुरक्षित रहे। इस बात को दस साल बीत गये। आज भी उसके कुछ कपड़े मेरे पास पड़े है, जिसमें उसकी यादों की खुशबू अभी भी तरो ताजा है। लगता है जैसे मानो कल की बात हो। सच कहूं तो ममतत्व का भाव हर स्त्री में होता है। मां सिर्फ एक बच्चा पैदा करने से नहीं बल्कि अपने अंदर छिपे ममतत्व भाव को पहचानने से बनती है। मैंने अनुभव किया है।
सोनिया मेरी बुआ की बेटी। तलाकशुदा बुआ मानसिक तौर पर बीमार थी जिसकी वजह से घर में उन्हें रहने के लिए एक अलग कमरा दे दिया गया था। परिवार की आ॓र से उन्हें हर मदद मिलती थी। जिम्मेदारी निभाने में असमर्थ बुआ मां बन गई, बेटी हुई, नाम रखा गया सोनिया। सबके जह़न में एक ही सवाल था बच्ची कौन पालेगा, तय हुआ बेटी को किसी जरूरत मंद परिवार को दे दिया जाए। पर मां तो मां होती है। मेरी बुआ ने सोनिया को किसी को भी देने से इंकार कर दिया।
गंदगी के कारण बुआ के कमरे में कोई जाना पसंद नहीं करता था। अब बुआ बच्ची को अपनें सीने से आधे लटकाये गलियों में घूमती नजर आने लगी। सब कुछ होते हुए भी उसे मांग कर खाने की आदत पड़ गई थी। कुछ लोग हंसी भी उड़ाते थे। सोनिया सबके लिए दुखद पर मेरे लिए खुशी की बात थी। खेलने के लिए एक प्यारी सी गुड़िया।
मुझे बच्चों के साथ वक्त बिताना हमेशा से ही अच्छा लगता है। मैनें धीरे-धीरे उसे अपने घर लाना शुरू कर दिया और उसके छोटे मोटे काम भी करने लगी। अपने हाथ से खाना खिलाने,नहलाने,सुलाने तक हर ममत्व का अनुभव किया मैंने। बाजार से उसके लिए नये कपड़े, सैंडिल, खिलौने सब कुछ खरीदे जिसकी उसे जरूरत थी। मैं चाहती थी वो पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो। लेकिन ये मेरी बुआ के साथ रहने पर संभव नहीं था वो अपनी बच्ची की देखभाल नहीं कर सकती थी।
अजीब सा लगता था जब शाम होते ही सोनिया कहती थी मुझे मेरी मां के पास ले चलो। मुझे याद है रिक्शा पर अक्सर वो मेरी गोद में सिर रख सो जाती थी। मैं भी अपने स्नेह से उसे सींचने का प्रयास कर रही थी। घर पहुंचते ही वो अपनी मां से लिपट जाती और उछल-उछल कर मेरी बातें बताती,उसने मेरी बुआ से शिकायत भी की मैं उसे थोड़े छोटे कपड़े पहनाती हूं।
सोनिय मेरी आदत बन गई थी, हम साथ में गुड़ियों से खूब खेलते। लेकिन कॉलेज के साथ सोनिया के ज्यादा वक्त दे पाना अब थोड़ा मुश्किल हो रहा था। एक दिन परीक्षा की वजह से मुझे घर आने में थोड़ी देर हो गई। सोनिया घर के बाहर मेरा इंतजार कर रही थी। लाल रंग का लहंगा पहने हाथ में गुड़िया लिए। मुझे देखते ही वो मुझसे लिपट कर रोने लगी आ॓र गुस्सा करने लगी मैं इतनी देर तक उसे अकेले छोड़ कर क्यूं चली गई। आज भी उसका लिपटना मुझे भावुक कर देता है।
सर्दी का समय था मैनें अपनी मां से कहा क्या हम उसे अपने साथ नहीं रख सकते। मैं उसे पढ़ाना चाहती हूं। मां ने कहा, हम एक बच्ची को उसकी मां से अलग कैसे कर सकते है। मेरे पास इस बात का कोई जवाब नहीं था...। बस हमेशा यही सोचती काश किसी तरह वो मेरे पास रह जाए।
वक्त बीत रहा था और कुछ समझ नहीं आ रहा था। एक दिन शाम को मैंने उसे अपनी मां की उंगली पकड़ कर जाते हुए देखा, बहुत खुश नजर आ रही थी सोनिया। बस मैं यही सोच पायी उसको कभी उसकी मां से अलग नहीं करूंगी। पर क्या पता था मैं उसे आखिरी बार देख रही हूं।
सुबह पता चला उसकी मां उसे कहीं ले गई। हमने बहुत ढूढां वो नहीं मिली। किसी ने बताया वो हरिद्वार की बस में बैठ कर कहीं चली गई। हमने हरिद्वार में भी बहुत ढूंढा पर...अब वो जा चुकी थी...शायद हमेशा के लिए। आज भी भीड़ में मेरी आंखे हमेशा कुछ ढूंढती रहती है। काश मैनें उसे जाने ना दिया होता...शायद वो मेरे पास होती।
आज मदर्स डे पर मेरी भगवान से यही कामना है 'मेरी' बच्ची हमेशा खुश व सुरक्षित रहे। इस बात को दस साल बीत गये। आज भी उसके कुछ कपड़े मेरे पास पड़े है, जिसमें उसकी यादों की खुशबू अभी भी तरो ताजा है। लगता है जैसे मानो कल की बात हो। सच कहूं तो ममतत्व का भाव हर स्त्री में होता है। मां सिर्फ एक बच्चा पैदा करने से नहीं बल्कि अपने अंदर छिपे ममतत्व भाव को पहचानने से बनती है। मैंने अनुभव किया है।
Wednesday, April 14, 2010
लाल सलाम, बेबस सरकार
धन्य होती है वो मां जो स्वंय बेटे का तिलक कर गर्व से कहती है,जाआ॓ देश की सेवा करो। ये जानते हुये भी कि आरती की थाली में रखा दीया कभी भी बुझ सकता है। लाल रंग का विजय तिलक कभी भी खून बन बह सकता है। बेटे की मौत का समाचार कभी भी मां का दिल दहला सकता है। उसके बाद भी कहती है मां.. जाआ॓....
मां के इन नौनिहालों का जो मातृभूमि के लिये मर मिटने को तैयार रहते हैं। हमारी सरकार उनका कितना ध्यान रख पाती है ये तो दंतवाड़ा में हुये नक्सलवाद में साफ दिखाई देता है। हमारे देश के 76 जवान देखते ही देखते मार गिराये जाते है और नक्सलवादी उन शहीदों की लाश पर मुस्कुराते हुये सर उठाये चल देते है। एक बार फिर सरकार के मुहं पर नक्सलवाद का एक करारा थप्पड़....
...और बस जवानों की लाशें और माताओं की दर्द भरी चीखें ..शायद उसके नौनिहाल गहरी नींद से जाग जाये। सरकार की नाकामी और लापरवाही की कहानी दंतवाड़ा नक्सलवाद। हमेशा की तरह जांच कमेटी बिठा औपचारिकता पूरी कर दी जाती है। सरकार ये भूल गई की इन अंदरूनी आंतकवादियों को बंदूको से मारना आसान नहीं। ये हमारे समाज का एक सड़ा हुआ अंग है जिसे हम चाह कर भी काट नहीं पा रहे है। केन्द्र और राज्य सरकार के बीच की खींचातानी और ढुल मुल रवैये ने इसे और पनपने में मदद की है। सरकार ने भी अब स्वीकार कर लिया है कि मात्र बातचीत से भी इनकी दरिंदगी पर काबू नहीं पाया जा सकता है। लेकिन क्या सच में हमारी सरकार लड़ाई के लिये भी तैयार है। एक और नक्सली गुरिल्ला युद्ध में माहिर है जिनके पास आधुनिक हथियारों की कमी नहीं है और दूसरी और हमारे जवान पारंपरिक हथियारों के भरोसे जीतने के लिये संघर्ष करते है। नक्सलियों का खुफिया तंत्र सरकारी तंत्र से कहीं आगे है। मनोबल के नाम पर हमारे जवानों के पास भूख से तड़पना और खुद को जानवरों की भूख में परसने के आलावा कोई चारा नहीं है। कुल मिलाकर हमारे जवान कहीं से भी युद्ध के लिये तैयार नजर नहीं आते। ऐसे में महज दावे करने वाली सरकार को जरूरत है कि सुरक्षा तंत्र को सुधारें, आधुनिक हथियारों की व्यवस्था के साथ- साथ उनकी चिकित्सा संबधी सुविधाओं का ध्यान रखे। ताकि शहीदों का संघर्ष खाली ना जाये और इस स्थिति पर काबू करने के लिये केन्द्र और राज्य सरकार दोनों को मिलकर काम करना होगा। यही हमारी शहीदों को श्रद्धांजलि होगी...
मां के इन नौनिहालों का जो मातृभूमि के लिये मर मिटने को तैयार रहते हैं। हमारी सरकार उनका कितना ध्यान रख पाती है ये तो दंतवाड़ा में हुये नक्सलवाद में साफ दिखाई देता है। हमारे देश के 76 जवान देखते ही देखते मार गिराये जाते है और नक्सलवादी उन शहीदों की लाश पर मुस्कुराते हुये सर उठाये चल देते है। एक बार फिर सरकार के मुहं पर नक्सलवाद का एक करारा थप्पड़....
...और बस जवानों की लाशें और माताओं की दर्द भरी चीखें ..शायद उसके नौनिहाल गहरी नींद से जाग जाये। सरकार की नाकामी और लापरवाही की कहानी दंतवाड़ा नक्सलवाद। हमेशा की तरह जांच कमेटी बिठा औपचारिकता पूरी कर दी जाती है। सरकार ये भूल गई की इन अंदरूनी आंतकवादियों को बंदूको से मारना आसान नहीं। ये हमारे समाज का एक सड़ा हुआ अंग है जिसे हम चाह कर भी काट नहीं पा रहे है। केन्द्र और राज्य सरकार के बीच की खींचातानी और ढुल मुल रवैये ने इसे और पनपने में मदद की है। सरकार ने भी अब स्वीकार कर लिया है कि मात्र बातचीत से भी इनकी दरिंदगी पर काबू नहीं पाया जा सकता है। लेकिन क्या सच में हमारी सरकार लड़ाई के लिये भी तैयार है। एक और नक्सली गुरिल्ला युद्ध में माहिर है जिनके पास आधुनिक हथियारों की कमी नहीं है और दूसरी और हमारे जवान पारंपरिक हथियारों के भरोसे जीतने के लिये संघर्ष करते है। नक्सलियों का खुफिया तंत्र सरकारी तंत्र से कहीं आगे है। मनोबल के नाम पर हमारे जवानों के पास भूख से तड़पना और खुद को जानवरों की भूख में परसने के आलावा कोई चारा नहीं है। कुल मिलाकर हमारे जवान कहीं से भी युद्ध के लिये तैयार नजर नहीं आते। ऐसे में महज दावे करने वाली सरकार को जरूरत है कि सुरक्षा तंत्र को सुधारें, आधुनिक हथियारों की व्यवस्था के साथ- साथ उनकी चिकित्सा संबधी सुविधाओं का ध्यान रखे। ताकि शहीदों का संघर्ष खाली ना जाये और इस स्थिति पर काबू करने के लिये केन्द्र और राज्य सरकार दोनों को मिलकर काम करना होगा। यही हमारी शहीदों को श्रद्धांजलि होगी...
Friday, March 19, 2010
भगवान या खुदा
रास्ते में
एक मासूम बच्चे को
मंदिर के सामने
हाथ उठा
प्रार्थना करते देखा
हाथ ठीक वैसे ही जुड़े थे
जैसे खुदा की इबादत में होते है
क्या लोगों ने इसे
समझाया नहीं
भगवान- खुदा अलग है
या यही
मासूमियत प्रेम है
भगवान है...
खुदा है...
जो आज इंसानो
से
जुदा है।
एक मासूम बच्चे को
मंदिर के सामने
हाथ उठा
प्रार्थना करते देखा
हाथ ठीक वैसे ही जुड़े थे
जैसे खुदा की इबादत में होते है
क्या लोगों ने इसे
समझाया नहीं
भगवान- खुदा अलग है
या यही
मासूमियत प्रेम है
भगवान है...
खुदा है...
जो आज इंसानो
से
जुदा है।
Monday, March 8, 2010
हरियाणा बना तालिबान
यूं तो गोत्र विवाद हमेशा से कितने लोगों की निर्मम बलि ले चुका है, लेकिन अभी भी उसका पेट भरा नहीं है इसलिये उसने एक मासूम बच्चे को अपने मां बाप के प्यार से महरूम कर दिया। हाल ही में हरियाणा के झज्जर जिले में अलग गोत्र होने के बावजूद पंचायत ने युवा दंपति के खिलाफ तालिबानी फरमान जारी करते हुये न सिर्फ एक दूसरे को अलग कर दिया, बल्कि भाई-बहन की तरह के रूप में रहने का आदेश भी दे डाला। ये जानते हुये कि उनका दस महीने का बच्चा भी हैं। पंचायत के इस फरमान ने आधुनिक समाज के मुंह पर एक बार फिर कालिख पोत दी हैं। एक तरफ जहां राज्य सरकार अपनी ही पीठ थपथपाने के लिये नम्बर वन हरियाणा के नाम से कैम्पेन चला रहा है, वही हरियाणा के पंचायतों का तुगलकी फरमान आज भी बदस्तूर जारी है। कभी गुड़िया, तो कभी समगोत्रिय विवाह के नाम पर वह नियमित अपना घिनौना रूप दिखाता आ रहा है, और अब बेवजह सिर्फ अपनी मूंछ की लड़ाई के नाम पर न सिर्फ एक मासूम बच्चे को उसके मां बाप से अलग किया बल्कि हंसते खेलते परिवार को दर दर की ठोकर खाने पर मजबूर कर दिया। इस देश में प्रगतिशील और जागरूक बुद्विजीवियों की कमी नहीं है। ये भी नहीं कि देश पिछले 60 वर्षो में सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र में आधुनिकवादी सोच नहीं अपनाया है। बावजूद इसके कि वैश्वीकरण के आधुनिक युग में भी भारत के अंदर ऐसे कई तालिबानी कुनबे आज भी मौजूद है, जो न सिर्फ रूढ़िवादी सोच को अपनाये हुये है बल्कि अपने तालिबानी फरमानों से इंसानियत को शर्मसार कर रहे है।
ये कैसा अर्थशास्त्र
कहां तो चिराग जरूरी था पूरे शहर के लिये
कहां चिराग नहीं मयस्सर
आज एक घर के लिये...
वित्त मंत्री जी जरा सुनिये, आपने बजट तो तो पेश कर दिया, लेकिन इस कमर तोड़ महंगाई की मार झेल रही जनता के लिये आपका बजट किसी अभिशाप से कम नहीं । इस महंगाई को तर्कसंगत बताने के लिये आपके अर्थशास्त्र के तरकश में भले ही तीरों की कमी न हो, लेकिन दो वक्त की दाल रोटी के लिये जद्दोजहद करने वाला मध्यम वर्ग कहां आपके बाजार की गणित को समझ पायेगा। उसे तो आपके बजट से काफी उम्मीदे थी, पहले से ही रोजमर्रा की जरूरत की सारी चीजें उसकी पहुंच से दूर होती जा रही थी, रही सही कसर आपके बजट ने पूरी कर दी।
जनता त्रस्त, नेता भ्रष्ट,आम आदमी जाये तो कहां जाये... पहले ही मंदी ने लाखों लोगों को बेरोजगार कर दिया बाद में महंगाई ने खाने की थाली का हुलिया ही बदल दिया। आज आम आदमी नमक और चीनी जैसी बेहद जरूरी चीजों से भी महरूम हो रहा है। कभी किसी जमाने में महज प्याज के नाम पर सरकारें गिर जाती थी और आज शायद ही आम आदमी किलो में सब्जी घर ले जाता हो। पिछले दिनो महंगाई पर जितनी बहस हुई महंगाई उतनी बढ़ती गई। सरकार ने कभी मानसून को कोसा तो कभी अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमतों का हवाला दे आश्वासन देने की कोशिश की, और जब कुछ ना हो सका तो कालाबाजारी के नाम पर राज्यों पर ठीकरा फोड़ दिया, लेकिन केन्द्र में सत्ता में बैठी सरकार ये भूल गई कि दिल्ली जैसे राज्य में जहां उन्हीं की सरकार है महंगाई ने पुराने सारे रिकार्ड तोड़ दिये, बहरहाल वित्त मंत्री जी ये तो पुरानी बातें हो गई पर आपके बजट ने तो और भी मायूस कर दिया। पहले आपने खाद पर सब्सिडी खत्म कर किसानों की कमर तोड़ दी। फिर बजट में पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ा किसानों को ही नहीं बल्कि आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया। इस विकराल महंगाई में सीमित आमदनी में घर कैसे चलता है ये मध्यम वर्गीय लोग ही बेहतर तरीके से जान सकते है। लेकिन आपको इससे क्या फर्क पड़ता है, वैसे तो आपकी पार्टी आम आदमी की पार्टी होने का दम भरती है, और आपके ही राज में आदमी दो जून रोटी जुटाने के संघर्ष में पीसता चला जा रहा है। बजट में बड़े- बड़े वादे शायद ही कभी आम आदमी को छू पाते हो, सरकार की सभी नीतियां मात्र कभी फाईलो में कभी बातों में दबी रह जाती है जो सीधे तौर पर जन जीवन पर प्रभाव डालती है। तो नेता जी जरा गरीब जनता का भी ख्याल कीजिये आखिर इसके दम पर ही आप जीत कर सत्ता तक पहुंच पाते है जनता के विश्वास को कायम रखिये नहीं तो सत्ता का सिंहासन बदलते देर नहीं लगती है।
कहां चिराग नहीं मयस्सर
आज एक घर के लिये...
वित्त मंत्री जी जरा सुनिये, आपने बजट तो तो पेश कर दिया, लेकिन इस कमर तोड़ महंगाई की मार झेल रही जनता के लिये आपका बजट किसी अभिशाप से कम नहीं । इस महंगाई को तर्कसंगत बताने के लिये आपके अर्थशास्त्र के तरकश में भले ही तीरों की कमी न हो, लेकिन दो वक्त की दाल रोटी के लिये जद्दोजहद करने वाला मध्यम वर्ग कहां आपके बाजार की गणित को समझ पायेगा। उसे तो आपके बजट से काफी उम्मीदे थी, पहले से ही रोजमर्रा की जरूरत की सारी चीजें उसकी पहुंच से दूर होती जा रही थी, रही सही कसर आपके बजट ने पूरी कर दी।
जनता त्रस्त, नेता भ्रष्ट,आम आदमी जाये तो कहां जाये... पहले ही मंदी ने लाखों लोगों को बेरोजगार कर दिया बाद में महंगाई ने खाने की थाली का हुलिया ही बदल दिया। आज आम आदमी नमक और चीनी जैसी बेहद जरूरी चीजों से भी महरूम हो रहा है। कभी किसी जमाने में महज प्याज के नाम पर सरकारें गिर जाती थी और आज शायद ही आम आदमी किलो में सब्जी घर ले जाता हो। पिछले दिनो महंगाई पर जितनी बहस हुई महंगाई उतनी बढ़ती गई। सरकार ने कभी मानसून को कोसा तो कभी अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमतों का हवाला दे आश्वासन देने की कोशिश की, और जब कुछ ना हो सका तो कालाबाजारी के नाम पर राज्यों पर ठीकरा फोड़ दिया, लेकिन केन्द्र में सत्ता में बैठी सरकार ये भूल गई कि दिल्ली जैसे राज्य में जहां उन्हीं की सरकार है महंगाई ने पुराने सारे रिकार्ड तोड़ दिये, बहरहाल वित्त मंत्री जी ये तो पुरानी बातें हो गई पर आपके बजट ने तो और भी मायूस कर दिया। पहले आपने खाद पर सब्सिडी खत्म कर किसानों की कमर तोड़ दी। फिर बजट में पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ा किसानों को ही नहीं बल्कि आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया। इस विकराल महंगाई में सीमित आमदनी में घर कैसे चलता है ये मध्यम वर्गीय लोग ही बेहतर तरीके से जान सकते है। लेकिन आपको इससे क्या फर्क पड़ता है, वैसे तो आपकी पार्टी आम आदमी की पार्टी होने का दम भरती है, और आपके ही राज में आदमी दो जून रोटी जुटाने के संघर्ष में पीसता चला जा रहा है। बजट में बड़े- बड़े वादे शायद ही कभी आम आदमी को छू पाते हो, सरकार की सभी नीतियां मात्र कभी फाईलो में कभी बातों में दबी रह जाती है जो सीधे तौर पर जन जीवन पर प्रभाव डालती है। तो नेता जी जरा गरीब जनता का भी ख्याल कीजिये आखिर इसके दम पर ही आप जीत कर सत्ता तक पहुंच पाते है जनता के विश्वास को कायम रखिये नहीं तो सत्ता का सिंहासन बदलते देर नहीं लगती है।
पाक से बातचीत, आखिर क्यों?
एक बार फिर भारत और पाकिस्तान के बीच बातों का सिलसिला शुरू होने जा रहा है, मुंबई हमले के बाद हुये संबद्ध विच्छेद के पीछे दलील को जानना जरूरी था। सो सरकार ने दलील दी पाकिस्तान ने ये मान लिया है कि मुंबई हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ है लेकिन सरकार अपनी पीठ अभी और थपथपाती कि आंतकवादियों ने पुणे में धमाका कर सरकार की दलीलों को धूमिल और पाक की नीयत को साफ कर दिया है। इस धमाके में कई निर्दोष जाने खाक हो गई, इसलिये यह सवाल उठाना लाज़मी है कि यकायक ऐसा क्या हो गया कि मनमोहन सिंह की सरकार आंतकवाद के साये में पाकिस्तान से बातचीत को तैयार हो गई,आखिर क्यों मनमोहन सिंह और ग्रहमंत्री चिंदबरम देश की संसद और जनता को बार बार आश्वस्त करने के बावजूद पाकिस्तानी दबाव के आगे झुक गये। कल तक सरकार यह कह रही थी कि आंतकवाद और बातचीत एक साथ नहीं चल सकती। फिर अब क्या हुआ...देश की जनता भी जानना चाहती है कि हमारी सरकार पाकिस्तान के कूटनीतिक जाल में फंस गयी है?बहरहाल 25 फरवरी को होने वाली बातचीत का ऐजंडा क्या होगा आतंकवाद, कश्मीर मुद्दा,अमन और चैन की बड़ी बातें या अपने बेगुनाह होने की सफाई.....? मुम्बई हमले का जख्म अभी भरा ही नहीं था और अब ये पुणे ब्लास्ट। मुम्बई हमलों के दोषी पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहे है, वे भारत के खिलाफ साजिश रचने का कौई मौका नहीं गंवाना चाहते, ज़ेहाद के नाम पर खुलेआम निर्दोषों को मारने पर उतारू आतंकवादी पाकिस्तान की पनाह में छुपे बैठे है, और हमारे देश की सरकार पाक से बात करना चाहती है? आखिर हम उनसें क्यों और क्या बात करना चाह रहे है। पाकिस्तान हमें घाव पर घाव दे रहा है और हम दोस्ती का राग आलापने से बाज नहीं आ रहे। आखिर इस बातचीत से हल क्या निकलेगा अगर मुम्बई हमलों के बाद पाक को सारे सबूत देने के बावजूद उसकी तरफ से कोई कार्यवाही नहीं होने पर भी हम उनसे बात करने पर इतने उतारू है तो ये हमारी बेशर्मी की हद है। हमारे देश की ये विडम्बना है कि पिछले इकसठ सालों से पाकिस्तान से धोखा खाने के बावजूद हम पाकिस्तान की नियत पर भरोसा रखते है और हमारे राजनेता अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को कूटनीतिक अमलीजामा पहना अपना पल्ला झाड़ लेते है बजाय ये सोचने के अब वक्त बातों का नहीं कार्यवाही का है, इससे पहले आम आदमी का भी सरकार से भरोसा उठ जाये सरकार इस विषय पर गंभीरता से सोचे इससे पहले की देर हो जाये। बहरहाल ये सवाल यक्ष प्रश्न की तरह जुड़ा है। पाक से बातचीत जरूरी है आखिर क्यों?..
खान मुद्दा: सियासत या पब्लिसिटी
नफरत की सियासत का दौर अभी जारी है। भाषा विवाद से शुरू हुआ सैलाब अब अपनी चपेट में आम लोगों के साथ सेलिब्रेटी को समेट रहा है। अब इसके निशाने पर है बादशाह खान यानि शाहरूख खान। जी हां बॉलिवुड के बादशाह के सितारे आजकल गर्दिश में है। एक बयान के बवाल पर खान पर इस कदर गाज गिरी है, कि वे सियासत के दो फांको के बीच फंस कर रह गये है। दरअसल शाहरूख ने आई.पी. एल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को शामिल करने की बात क्या कह डाली कि शिवसेना और एम.एन.एस जैसे संगठनों ने उनके खिलाफ मुहिम छेड़ दी। मराठी-गैर मराठी का मुद्दा तो था ही, शाहरूख के बयान से इन्हें अपनी सियासत को चमकानें का एक और मौका मिल गया।शाहरूख तो इस वक्त अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिये विदेश में है, लेकिन यहां देश में शिवसेना और एम.एन.एस उनका पुतला फूंक रही है। उनकी आने वाली फिल्म 'माई नेम इज़ खान' के पोस्टर फाड़े जा रहे है। उन्हें धमकी दी जा रही है कि अगर माफी नहीं मांगी तो अंजाम भुगतने के लिये तैयार रहना होगा, दूसरी और शाहरूख झुकने को तैयार नहीं। बॉलिवुड का ये मामला बंटा हुआ नजर आ रहा है। कुछ लोगों ने तो समर्थन में बयान दिया है, कुछ लोग खौफजदा नजर आ रहे है। शाहरूख के लिये राहत की बात है कि राहुल गांधी और प्रियंका उनके समर्थन में खड़े है।अब बात करतें है सिक्कें के दूसरे पहलू की, सुनने में अजीब लगे लेकिन फिल्म और विवाद चोली दामन का साथ रहा है। इसलिये यह भी ध्यान देने की जरूरत है। 'माई नेम इज़ खान' से शाहरूख, करण जौहर और इसके प्रमोटर को काफी उम्मीद हैं। इस विवाद से 12 फरवरी को रिलीज़ हो रही फिल्म को अच्छी खासी पब्लिसिटी मिल रही है। खासकर मुसलमान वर्ग के लिये ये फिल्म भावनात्मक दृष्टि से भी अत्याधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है।बॉलिवुड में अपनी फिल्मों के प्रमोशन के लिये सभी लोग नये नये तरीके इज़ाद करते है। जहां महानायक अमिताभ बच्चन खबरीया चैनल के न्यूजरूम में जाकर अपनी फिल्म की पब्लिसिटी करते है, वहीं आमिर खान जैसे मंझे कलाकार को भी अपनी फिल्म चलाने के लिये शहरों में भेष बदल कर घूमना पड़ता है। अब बारी है शाहरूख की 'माई नेम इज़ खान' का विषय भी यही है कि सिर्फ मुसलमान होने पर किसी को आतंकवादी ना समझा जाये। इस विवाद के पीछे की सच्चाई सिर्फ सियासत है या कुछ और... ये तो वक्त ही बतायेगा लेकिन इस बात से भी कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि इस विवाद से शाहरूख की फिल्म को काफी पब्लिसिटी मिल रही है, या फिर ये भी हो सकता है कि ये भी फिल्म प्रमोशन का नया तरीका हो...
हम खुद से भाग रहें है
कौई हाथ भी ना मिलाएगा
जो गले मिलोगे तपाक से
यह नये मिज़ाज का शहर है
ज़रा फासले से मिला करों
सुबह ऑफिस के लिये निकलते वक्त जब लोगों को बेतहाशा भागते देखती हूं तो साचती हूं , सब कहां और किसके लिये भाग रहे है,ऑटो में जबरदस्ती बैठने में एक दूसरे को टोहते हुये,जल्दी से सड़क पार करने की दौड़ में कभी रिक्शे वाले और कभी गाड़ी वालों को गालिया निकालते हुये, बस की सीढ़ी पर लटकते हुये,बाल खुजाते अपनी किस्मत को कोसते हुये, हम अक्सर भागते दौड़ते दिख जाते है, चेहरे अलग, पर उन पर पड़ने वाली शिकन एक होती है। हां ये हमारा शहर है, हमारे पास किसी चीज़ के लिये वक्त नहीं हम शहरी है, वहीं शहरी जहां संवेदनाये दम तोड़ चुकी है, ढूंढ ही नहीं पाती किसी के मन में बसेरा, आदमी खोखला जो हो गया है। जिंदा रहने के नाम पर शिराओं में बहते रक्त की हलचल या सांसो के आवागमन के आलावा अब हमारे पास कुछ नहीं बचा। किसी की खुशी से खुश, किसी के दुख से दुखी कुछ फर्क नहीं पड़ता पूरी तरह संवेदनहीन। कभी राजनीति में फंसे, कभी दूसरों को धोखा दे पाने की सफलता पर गर्वित हम कितना खुश होते है, हम शहरी है, वक्त के साथ चल रहे है। मां-बाप के चेहरे पर पड़ी झुर्रियों के पीछे दर्द से अनजान, बच्चों की तोतली बोली से परेशान, दोस्तों के अधिकारों से हैरान, हम खुद को कहां और किस कदर खड़ा पाते है भगवान ही जाने, क्योकीं अब ये इंसानों के बस की बात नहीं रहीं, हम बहुत चालाक जो हो गये है इतने की रात को सोने पहले भी अपने कर्मो का लेखा जोखा करते वक्त मन की आंखों में धूल झोंकने से बाज नहीं आते। हम बेतहाशा किससे भाग रहे है, रिश्तों से दूर, परिवार से दूर, जिम्मेदारियों से दूर, प्यार से दूर, हर निगाह से दूर, सबसे बचते बचाते, बहुत कुछ खोते पर ना जानें क्या पाते। परिवार बंट गयें, रिश्तें एक आ॓र मुहं बाये खड़े, स्नेह, भावनायें एक नज़र की प्रतीक्षा में, ज़माना बदल जो गया है, लेकिन क्या इतना कि हम अपने घोंसले मे स्नेह और सोहार्द को नहीं संजो सकते, या हम इस धोखे में रहना चाहते है कि हम दूसरों के लिये नहीं बल्कि खुद से भाग रहे हैं।
जो गले मिलोगे तपाक से
यह नये मिज़ाज का शहर है
ज़रा फासले से मिला करों
सुबह ऑफिस के लिये निकलते वक्त जब लोगों को बेतहाशा भागते देखती हूं तो साचती हूं , सब कहां और किसके लिये भाग रहे है,ऑटो में जबरदस्ती बैठने में एक दूसरे को टोहते हुये,जल्दी से सड़क पार करने की दौड़ में कभी रिक्शे वाले और कभी गाड़ी वालों को गालिया निकालते हुये, बस की सीढ़ी पर लटकते हुये,बाल खुजाते अपनी किस्मत को कोसते हुये, हम अक्सर भागते दौड़ते दिख जाते है, चेहरे अलग, पर उन पर पड़ने वाली शिकन एक होती है। हां ये हमारा शहर है, हमारे पास किसी चीज़ के लिये वक्त नहीं हम शहरी है, वहीं शहरी जहां संवेदनाये दम तोड़ चुकी है, ढूंढ ही नहीं पाती किसी के मन में बसेरा, आदमी खोखला जो हो गया है। जिंदा रहने के नाम पर शिराओं में बहते रक्त की हलचल या सांसो के आवागमन के आलावा अब हमारे पास कुछ नहीं बचा। किसी की खुशी से खुश, किसी के दुख से दुखी कुछ फर्क नहीं पड़ता पूरी तरह संवेदनहीन। कभी राजनीति में फंसे, कभी दूसरों को धोखा दे पाने की सफलता पर गर्वित हम कितना खुश होते है, हम शहरी है, वक्त के साथ चल रहे है। मां-बाप के चेहरे पर पड़ी झुर्रियों के पीछे दर्द से अनजान, बच्चों की तोतली बोली से परेशान, दोस्तों के अधिकारों से हैरान, हम खुद को कहां और किस कदर खड़ा पाते है भगवान ही जाने, क्योकीं अब ये इंसानों के बस की बात नहीं रहीं, हम बहुत चालाक जो हो गये है इतने की रात को सोने पहले भी अपने कर्मो का लेखा जोखा करते वक्त मन की आंखों में धूल झोंकने से बाज नहीं आते। हम बेतहाशा किससे भाग रहे है, रिश्तों से दूर, परिवार से दूर, जिम्मेदारियों से दूर, प्यार से दूर, हर निगाह से दूर, सबसे बचते बचाते, बहुत कुछ खोते पर ना जानें क्या पाते। परिवार बंट गयें, रिश्तें एक आ॓र मुहं बाये खड़े, स्नेह, भावनायें एक नज़र की प्रतीक्षा में, ज़माना बदल जो गया है, लेकिन क्या इतना कि हम अपने घोंसले मे स्नेह और सोहार्द को नहीं संजो सकते, या हम इस धोखे में रहना चाहते है कि हम दूसरों के लिये नहीं बल्कि खुद से भाग रहे हैं।
देखिये देश का बंदरबांट
सरकार ने अलग तेलंगाना की मांग क्या मान ली देश के हर कोने से इस तरह की मांगो की बाढ़ सी आ गई है । गोरखालेंड, मिथिलांचल,पूर्वांचल,बुंदलखंड,हरितप्रदेश आदि अलग राज्य होने की मांग बढ़ती ही जा रही है, जिन क्षेत्रों में अलग होने की हसरत दबी हुई थी, तेलंगाना की मांग से उन्हें भी अलग होने की आवाज उठाने का मौका मिल गया है। पर सवाल ये भी है कि वाकई जनता भी अलग राज्य चाहती है या मात्र उन राजनेताओं के हाथ का मोहरा बनी हुई है जो अपना स्वार्थ पूरा करने के लिये इस तरह की मांगो को हवा दे रहे है।
ऐसा लगता है जिस तरह तेलंगाना पर सैद्धातिक सहमति बनते ही दूसरों क्षेत्रों से भी जो अलग राज्यों की मांग का जो दबाव सरकार पर पड़ रहा है इससे सवैंधानिक संकट के आलावा क्या उत्पन्न होगा ये तो भगवान ही जानें, पर बेचारी जनता राजनेताओं और उनके चमचों का खामियाजा हमेशा से भुगतती ही आ रही है।
हो सकता है अब आने वाले वक्त में ये भी सुनने में आये कमला नगर, करोलबाग,सा सन्त नगर या फिर सब्जीमंडी भी अब अलग राज्य बनने वाले है । पर सच में यह गंभीर प्रश्न है की राज्यों के बंटवारे के पीछे इन महानुभवों कारण वाकई विकास की बयार में पिछड़े इलाकों का पिछड़ापन दूर करना इन नेताओं की मंशा है,या वे राजनीतिक सहुलियत हासिल करके सत्ता के शिखर तक पहुंचना चाहते है, और राज्य के नाम पर कभी तेलंगना कभी मिथिला और कभी ...भेड़चाल में क्या क्या चाहते है।
ऐसा लगता है जिस तरह तेलंगाना पर सैद्धातिक सहमति बनते ही दूसरों क्षेत्रों से भी जो अलग राज्यों की मांग का जो दबाव सरकार पर पड़ रहा है इससे सवैंधानिक संकट के आलावा क्या उत्पन्न होगा ये तो भगवान ही जानें, पर बेचारी जनता राजनेताओं और उनके चमचों का खामियाजा हमेशा से भुगतती ही आ रही है।
हो सकता है अब आने वाले वक्त में ये भी सुनने में आये कमला नगर, करोलबाग,सा सन्त नगर या फिर सब्जीमंडी भी अब अलग राज्य बनने वाले है । पर सच में यह गंभीर प्रश्न है की राज्यों के बंटवारे के पीछे इन महानुभवों कारण वाकई विकास की बयार में पिछड़े इलाकों का पिछड़ापन दूर करना इन नेताओं की मंशा है,या वे राजनीतिक सहुलियत हासिल करके सत्ता के शिखर तक पहुंचना चाहते है, और राज्य के नाम पर कभी तेलंगना कभी मिथिला और कभी ...भेड़चाल में क्या क्या चाहते है।
Subscribe to:
Posts (Atom)