Monday, March 8, 2010

हम खुद से भाग रहें है

कौई हाथ भी ना मिलाएगा
जो गले मिलोगे तपाक से
यह नये मिज़ाज का शहर है
ज़रा फासले से मिला करों


सुबह ऑफिस के लिये निकलते वक्त जब लोगों को बेतहाशा भागते देखती हूं तो साचती हूं , सब कहां और किसके लिये भाग रहे है,ऑटो में जबरदस्ती बैठने में एक दूसरे को टोहते हुये,जल्दी से सड़क पार करने की दौड़ में कभी रिक्शे वाले और कभी गाड़ी वालों को गालिया निकालते हुये, बस की सीढ़ी पर लटकते हुये,बाल खुजाते अपनी किस्मत को कोसते हुये, हम अक्सर भागते दौड़ते दिख जाते है, चेहरे अलग, पर उन पर पड़ने वाली शिकन एक होती है। हां ये हमारा शहर है, हमारे पास किसी चीज़ के लिये वक्त नहीं हम शहरी है, वहीं शहरी जहां संवेदनाये दम तोड़ चुकी है, ढूंढ ही नहीं पाती किसी के मन में बसेरा, आदमी खोखला जो हो गया है। जिंदा रहने के नाम पर शिराओं में बहते रक्त की हलचल या सांसो के आवागमन के आलावा अब हमारे पास कुछ नहीं बचा। किसी की खुशी से खुश, किसी के दुख से दुखी कुछ फर्क नहीं पड़ता पूरी तरह संवेदनहीन। कभी राजनीति में फंसे, कभी दूसरों को धोखा दे पाने की सफलता पर गर्वित हम कितना खुश होते है, हम शहरी है, वक्त के साथ चल रहे है। मां-बाप के चेहरे पर पड़ी झुर्रियों के पीछे दर्द से अनजान, बच्चों की तोतली बोली से परेशान, दोस्तों के अधिकारों से हैरान, हम खुद को कहां और किस कदर खड़ा पाते है भगवान ही जाने, क्योकीं अब ये इंसानों के बस की बात नहीं रहीं, हम बहुत चालाक जो हो गये है इतने की रात को सोने पहले भी अपने कर्मो का लेखा जोखा करते वक्त मन की आंखों में धूल झोंकने से बाज नहीं आते। हम बेतहाशा किससे भाग रहे है, रिश्तों से दूर, परिवार से दूर, जिम्मेदारियों से दूर, प्यार से दूर, हर निगाह से दूर, सबसे बचते बचाते, बहुत कुछ खोते पर ना जानें क्या पाते। परिवार बंट गयें, रिश्तें एक आ॓र मुहं बाये खड़े, स्नेह, भावनायें एक नज़र की प्रतीक्षा में, ज़माना बदल जो गया है, लेकिन क्या इतना कि हम अपने घोंसले मे स्नेह और सोहार्द को नहीं संजो सकते, या हम इस धोखे में रहना चाहते है कि हम दूसरों के लिये नहीं बल्कि खुद से भाग रहे हैं।

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