Thursday, May 20, 2010

बर्बरता की पराकाष्ठा

रोज़ एक ही खबर, नक्सलवादियों ने हमारे ...इतने जवान मार गिराये, नक्सलवादियों ने बस जलाई, बे-गुनाह बच्चों व औरतों पर कहर बरपाया, रेल पटरियां उड़ाई और ना जाने क्या..क्या। अखबार की सुर्खियों में भी नक्सलियों का एक बड़ा कोना। चर्चाओं का विषय भी नक्सलवाद। परिणाम नदारद, वो अपना काम कर रहे हैं और हम बहस...जाने क्या होगा...

लाल सलाम बेबस सरकार,कुछ दिन पहले ही मैनें सरकार की विवशता का जिक्र किया था। एक बार फिर दंतेवाड़ा में इंसानियत शर्मसार हुई है।

फर्क सिर्फ इतना है कि खाकी वर्दी के साथ इस बार नक्सलियों ने आम लोगों को भी निशाना बनाया है। नक्सलियों की बर्बरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जिस बस को नक्सलियों ने अपना निशाना बनाया उसमें बच्चें और औरतें काफी संख्या में मौजूद थे। बहरहाल 40से ज्यादा लोग इस धमाके में मारे गये और आधे दर्जन घायल अवस्था में जिंदगी और मौत से जूझ रहें हैं।

दंतेवाड़ा,जिसका जिक्र पुराणों में दंडकारण्य के नाम से किया जाता है जहां कभी भगवान राम वनवास के दौरान रूके थे। जहां प्राकृतिक खूबसूरती कभी लोगों को लुभाती थी आज उसी धरती को नक्सलियों ने लहूलुहान कर दिया। रोज़ ही नक्सलियों का ये खूनी तांडव कभी दंतेवाड़ा तो कभी मिदनापुर तो कभी चतरा में जारी है। सरकार असहाय की तरह देख रही है। राज्य और केन्द्र दोनो एक दूसरे के पाले में गेंद डाल अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाना चाहते है।

सवाल यह है कि क्या वाकई नक्सलवाद या माआ॓वाद का मूल उद्धेश्य यही था जो आज वो कर रहे हैं। क्या फर्क है एक नक्सलवादी में और आंतकवादी में। एक दुश्मन ऐसा है जो सीमा पार बैठा है जिसे हम जानते है,जिससे लड़ने की वजह भी हमारे पास है...पर उसका क्या करें..जो अपना है...घर में बैठा है...हम में से एक है..करता वही है जो एक आतंकवादी करता है। मासूम इंसानों का खून।

नक्सलवादी जिस तरह से अपने ही लोगों का रोज खून बहा रहे है उससे ये बहस तेज हो गई है कि नक्सलवाद और आतंकवाद का फर्क अब मिट गया है। जिस बर्बरता के साथ नक्सलवादियों ने दंतेवाड़ा में पहले 76 जवानों का और अब 40से ज्यादा आम लोगों का खून बहाया है उससे साफ है कि नक्सलवादियों की लड़ाई अब दबे कुचले आदिवासियों की नहीं रह गई है। उसका उद्धेश्य नक्सलवाद की आड़ में अराजकता फैलाना है। अब ये दलील दी जाने लगी है कि जिन आदिवासियों को विकास की बयार अब तक छू भी नहीं पाई है और उसके पास ए के 47जैसे राइफल कहां से आ गये..आखिर कौन सिंडिकेट इन नक्सलवादियों के पीछे काम कर रहा है जो इन्हें दो वक्त की रोटी तो नहीं दे पाता पर हथियार जरूर मुहैया करा देता हैं।



वजह साफ है मुट्ठी भर लोग अपने फायदे के लिए आदिवासियों और पिछड़े लोगों को पूरी व्यवस्था के खिलाफ लड़ने के लिए उकसा रहे हैं। शायद वो भूल जाते है कि गोली कहीं से भी चले मरते दोनों तरफ के लोग है।

नक्सलवाद के पनपने और पसरने का एक कारण राजनीतिक भी है। आजादी के 60साल बाद भी समाज का एक बड़ा तबका जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं से बेज़ार है। विकास की बयार दिल्ली और शहरों तक ही सीमित है। सरकारी योजनाएं सुनने में तो लुभावनी लगती है पर इसका फायदा मंत्रियों और बाबूओं तक ही सीमित रह जाता है। नेताओं के खोखले वादे और स्वार्थ ने नक्सलवाद को और सींचा है।

आज भी जब नक्सलवादी बर्बरता का नंगा नाच कर रहे है,वहीं राजनीतिक दल और हमारे नेता एक दूसरे को कोसने में लगे है।

कहा जा सकता है अब उनके खिलाफ कोई एक रणनीति तय नहीं की जा सकती। हमें भी अपनी रणनीति बदलनी होगी।

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