Friday, March 19, 2010

भगवान या खुदा

रास्ते में
एक मासूम बच्चे को
मंदिर के सामने
हाथ उठा
प्रार्थना करते देखा
हाथ ठीक वैसे ही जुड़े थे
जैसे खुदा की इबादत में होते है
क्या लोगों ने इसे
समझाया नहीं
भगवान- खुदा अलग है
या यही
मासूमियत प्रेम है
भगवान है...
खुदा है...
जो आज इंसानो
से
जुदा है।

Monday, March 8, 2010

हरियाणा बना तालिबान

यूं तो गोत्र विवाद हमेशा से कितने लोगों की निर्मम बलि ले चुका है, लेकिन अभी भी उसका पेट भरा नहीं है इसलिये उसने एक मासूम बच्चे को अपने मां बाप के प्यार से महरूम कर दिया। हाल ही में हरियाणा के झज्जर जिले में अलग गोत्र होने के बावजूद पंचायत ने युवा दंपति के खिलाफ तालिबानी फरमान जारी करते हुये न सिर्फ एक दूसरे को अलग कर दिया, बल्कि भाई-बहन की तरह के रूप में रहने का आदेश भी दे डाला। ये जानते हुये कि उनका दस महीने का बच्चा भी हैं। पंचायत के इस फरमान ने आधुनिक समाज के मुंह पर एक बार फिर कालिख पोत दी हैं। एक तरफ जहां राज्य सरकार अपनी ही पीठ थपथपाने के लिये नम्बर वन हरियाणा के नाम से कैम्पेन चला रहा है, वही हरियाणा के पंचायतों का तुगलकी फरमान आज भी बदस्तूर जारी है। कभी गुड़िया, तो कभी समगोत्रिय विवाह के नाम पर वह नियमित अपना घिनौना रूप दिखाता आ रहा है, और अब बेवजह सिर्फ अपनी मूंछ की लड़ाई के नाम पर न सिर्फ एक मासूम बच्चे को उसके मां बाप से अलग किया बल्कि हंसते खेलते परिवार को दर दर की ठोकर खाने पर मजबूर कर दिया। इस देश में प्रगतिशील और जागरूक बुद्विजीवियों की कमी नहीं है। ये भी नहीं कि देश पिछले 60 वर्षो में सामाजिक, आर्थिक क्षेत्र में आधुनिकवादी सोच नहीं अपनाया है। बावजूद इसके कि वैश्वीकरण के आधुनिक युग में भी भारत के अंदर ऐसे कई तालिबानी कुनबे आज भी मौजूद है, जो न सिर्फ रूढ़िवादी सोच को अपनाये हुये है बल्कि अपने तालिबानी फरमानों से इंसानियत को शर्मसार कर रहे है।

ये कैसा अर्थशास्त्र

कहां तो चिराग जरूरी था पूरे शहर के लिये
कहां चिराग नहीं मयस्सर
आज एक घर के लिये...

वित्त मंत्री जी जरा सुनिये, आपने बजट तो तो पेश कर दिया, लेकिन इस कमर तोड़ महंगाई की मार झेल रही जनता के लिये आपका बजट किसी अभिशाप से कम नहीं । इस महंगाई को तर्कसंगत बताने के लिये आपके अर्थशास्त्र के तरकश में भले ही तीरों की कमी न हो, लेकिन दो वक्त की दाल रोटी के लिये जद्दोजहद करने वाला मध्यम वर्ग कहां आपके बाजार की गणित को समझ पायेगा। उसे तो आपके बजट से काफी उम्मीदे थी, पहले से ही रोजमर्रा की जरूरत की सारी चीजें उसकी पहुंच से दूर होती जा रही थी, रही सही कसर आपके बजट ने पूरी कर दी।
जनता त्रस्त, नेता भ्रष्ट,आम आदमी जाये तो कहां जाये... पहले ही मंदी ने लाखों लोगों को बेरोजगार कर दिया बाद में महंगाई ने खाने की थाली का हुलिया ही बदल दिया। आज आम आदमी नमक और चीनी जैसी बेहद जरूरी चीजों से भी महरूम हो रहा है। कभी किसी जमाने में महज प्याज के नाम पर सरकारें गिर जाती थी और आज शायद ही आम आदमी किलो में सब्जी घर ले जाता हो। पिछले दिनो महंगाई पर जितनी बहस हुई महंगाई उतनी बढ़ती गई। सरकार ने कभी मानसून को कोसा तो कभी अंतर्राष्ट्रीय बाजार की कीमतों का हवाला दे आश्वासन देने की कोशिश की, और जब कुछ ना हो सका तो कालाबाजारी के नाम पर राज्यों पर ठीकरा फोड़ दिया, लेकिन केन्द्र में सत्ता में बैठी सरकार ये भूल गई कि दिल्ली जैसे राज्य में जहां उन्हीं की सरकार है महंगाई ने पुराने सारे रिकार्ड तोड़ दिये, बहरहाल वित्त मंत्री जी ये तो पुरानी बातें हो गई पर आपके बजट ने तो और भी मायूस कर दिया। पहले आपने खाद पर सब्सिडी खत्म कर किसानों की कमर तोड़ दी। फिर बजट में पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ा किसानों को ही नहीं बल्कि आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया। इस विकराल महंगाई में सीमित आमदनी में घर कैसे चलता है ये मध्यम वर्गीय लोग ही बेहतर तरीके से जान सकते है। लेकिन आपको इससे क्या फर्क पड़ता है, वैसे तो आपकी पार्टी आम आदमी की पार्टी होने का दम भरती है, और आपके ही राज में आदमी दो जून रोटी जुटाने के संघर्ष में पीसता चला जा रहा है। बजट में बड़े- बड़े वादे शायद ही कभी आम आदमी को छू पाते हो, सरकार की सभी नीतियां मात्र कभी फाईलो में कभी बातों में दबी रह जाती है जो सीधे तौर पर जन जीवन पर प्रभाव डालती है। तो नेता जी जरा गरीब जनता का भी ख्याल कीजिये आखिर इसके दम पर ही आप जीत कर सत्ता तक पहुंच पाते है जनता के विश्वास को कायम रखिये नहीं तो सत्ता का सिंहासन बदलते देर नहीं लगती है।

पाक से बातचीत, आखिर क्यों?

एक बार फिर भारत और पाकिस्तान के बीच बातों का सिलसिला शुरू होने जा रहा है, मुंबई हमले के बाद हुये संबद्ध विच्छेद के पीछे दलील को जानना जरूरी था। सो सरकार ने दलील दी पाकिस्तान ने ये मान लिया है कि मुंबई हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ है लेकिन सरकार अपनी पीठ अभी और थपथपाती कि आंतकवादियों ने पुणे में धमाका कर सरकार की दलीलों को धूमिल और पाक की नीयत को साफ कर दिया है। इस धमाके में कई निर्दोष जाने खाक हो गई, इसलिये यह सवाल उठाना लाज़मी है कि यकायक ऐसा क्या हो गया कि मनमोहन सिंह की सरकार आंतकवाद के साये में पाकिस्तान से बातचीत को तैयार हो गई,आखिर क्यों मनमोहन सिंह और ग्रहमंत्री चिंदबरम देश की संसद और जनता को बार बार आश्वस्त करने के बावजूद पाकिस्तानी दबाव के आगे झुक गये। कल तक सरकार यह कह रही थी कि आंतकवाद और बातचीत एक साथ नहीं चल सकती। फिर अब क्या हुआ...देश की जनता भी जानना चाहती है कि हमारी सरकार पाकिस्तान के कूटनीतिक जाल में फंस गयी है?बहरहाल 25 फरवरी को होने वाली बातचीत का ऐजंडा क्या होगा आतंकवाद, कश्मीर मुद्दा,अमन और चैन की बड़ी बातें या अपने बेगुनाह होने की सफाई.....? मुम्बई हमले का जख्म अभी भरा ही नहीं था और अब ये पुणे ब्लास्ट। मुम्बई हमलों के दोषी पाकिस्तान में खुलेआम घूम रहे है, वे भारत के खिलाफ साजिश रचने का कौई मौका नहीं गंवाना चाहते, ज़ेहाद के नाम पर खुलेआम निर्दोषों को मारने पर उतारू आतंकवादी पाकिस्तान की पनाह में छुपे बैठे है, और हमारे देश की सरकार पाक से बात करना चाहती है? आखिर हम उनसें क्यों और क्या बात करना चाह रहे है। पाकिस्तान हमें घाव पर घाव दे रहा है और हम दोस्ती का राग आलापने से बाज नहीं आ रहे। आखिर इस बातचीत से हल क्या निकलेगा अगर मुम्बई हमलों के बाद पाक को सारे सबूत देने के बावजूद उसकी तरफ से कोई कार्यवाही नहीं होने पर भी हम उनसे बात करने पर इतने उतारू है तो ये हमारी बेशर्मी की हद है। हमारे देश की ये विडम्बना है कि पिछले इकसठ सालों से पाकिस्तान से धोखा खाने के बावजूद हम पाकिस्तान की नियत पर भरोसा रखते है और हमारे राजनेता अपनी राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को कूटनीतिक अमलीजामा पहना अपना पल्ला झाड़ लेते है बजाय ये सोचने के अब वक्त बातों का नहीं कार्यवाही का है, इससे पहले आम आदमी का भी सरकार से भरोसा उठ जाये सरकार इस विषय पर गंभीरता से सोचे इससे पहले की देर हो जाये। बहरहाल ये सवाल यक्ष प्रश्न की तरह जुड़ा है। पाक से बातचीत जरूरी है आखिर क्यों?..

खान मुद्दा: सियासत या पब्लिसिटी

नफरत की सियासत का दौर अभी जारी है। भाषा विवाद से शुरू हुआ सैलाब अब अपनी चपेट में आम लोगों के साथ सेलिब्रेटी को समेट रहा है। अब इसके निशाने पर है बादशाह खान यानि शाहरूख खान। जी हां बॉलिवुड के बादशाह के सितारे आजकल गर्दिश में है। एक बयान के बवाल पर खान पर इस कदर गाज गिरी है, कि वे सियासत के दो फांको के बीच फंस कर रह गये है। दरअसल शाहरूख ने आई.पी. एल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों को शामिल करने की बात क्या कह डाली कि शिवसेना और एम.एन.एस जैसे संगठनों ने उनके खिलाफ मुहिम छेड़ दी। मराठी-गैर मराठी का मुद्दा तो था ही, शाहरूख के बयान से इन्हें अपनी सियासत को चमकानें का एक और मौका मिल गया।शाहरूख तो इस वक्त अपनी फिल्म के प्रमोशन के लिये विदेश में है, लेकिन यहां देश में शिवसेना और एम.एन.एस उनका पुतला फूंक रही है। उनकी आने वाली फिल्म 'माई नेम इज़ खान' के पोस्टर फाड़े जा रहे है। उन्हें धमकी दी जा रही है कि अगर माफी नहीं मांगी तो अंजाम भुगतने के लिये तैयार रहना होगा, दूसरी और शाहरूख झुकने को तैयार नहीं। बॉलिवुड का ये मामला बंटा हुआ नजर आ रहा है। कुछ लोगों ने तो समर्थन में बयान दिया है, कुछ लोग खौफजदा नजर आ रहे है। शाहरूख के लिये राहत की बात है कि राहुल गांधी और प्रियंका उनके समर्थन में खड़े है।अब बात करतें है सिक्कें के दूसरे पहलू की, सुनने में अजीब लगे लेकिन फिल्म और विवाद चोली दामन का साथ रहा है। इसलिये यह भी ध्यान देने की जरूरत है। 'माई नेम इज़ खान' से शाहरूख, करण जौहर और इसके प्रमोटर को काफी उम्मीद हैं। इस विवाद से 12 फरवरी को रिलीज़ हो रही फिल्म को अच्छी खासी पब्लिसिटी मिल रही है। खासकर मुसलमान वर्ग के लिये ये फिल्म भावनात्मक दृष्टि से भी अत्याधिक महत्वपूर्ण होती जा रही है।बॉलिवुड में अपनी फिल्मों के प्रमोशन के लिये सभी लोग नये नये तरीके इज़ाद करते है। जहां महानायक अमिताभ बच्चन खबरीया चैनल के न्यूजरूम में जाकर अपनी फिल्म की पब्लिसिटी करते है, वहीं आमिर खान जैसे मंझे कलाकार को भी अपनी फिल्म चलाने के लिये शहरों में भेष बदल कर घूमना पड़ता है। अब बारी है शाहरूख की 'माई नेम इज़ खान' का विषय भी यही है कि सिर्फ मुसलमान होने पर किसी को आतंकवादी ना समझा जाये। इस विवाद के पीछे की सच्चाई सिर्फ सियासत है या कुछ और... ये तो वक्त ही बतायेगा लेकिन इस बात से भी कतई इंकार नहीं किया जा सकता कि इस विवाद से शाहरूख की फिल्म को काफी पब्लिसिटी मिल रही है, या फिर ये भी हो सकता है कि ये भी फिल्म प्रमोशन का नया तरीका हो...

हम खुद से भाग रहें है

कौई हाथ भी ना मिलाएगा
जो गले मिलोगे तपाक से
यह नये मिज़ाज का शहर है
ज़रा फासले से मिला करों


सुबह ऑफिस के लिये निकलते वक्त जब लोगों को बेतहाशा भागते देखती हूं तो साचती हूं , सब कहां और किसके लिये भाग रहे है,ऑटो में जबरदस्ती बैठने में एक दूसरे को टोहते हुये,जल्दी से सड़क पार करने की दौड़ में कभी रिक्शे वाले और कभी गाड़ी वालों को गालिया निकालते हुये, बस की सीढ़ी पर लटकते हुये,बाल खुजाते अपनी किस्मत को कोसते हुये, हम अक्सर भागते दौड़ते दिख जाते है, चेहरे अलग, पर उन पर पड़ने वाली शिकन एक होती है। हां ये हमारा शहर है, हमारे पास किसी चीज़ के लिये वक्त नहीं हम शहरी है, वहीं शहरी जहां संवेदनाये दम तोड़ चुकी है, ढूंढ ही नहीं पाती किसी के मन में बसेरा, आदमी खोखला जो हो गया है। जिंदा रहने के नाम पर शिराओं में बहते रक्त की हलचल या सांसो के आवागमन के आलावा अब हमारे पास कुछ नहीं बचा। किसी की खुशी से खुश, किसी के दुख से दुखी कुछ फर्क नहीं पड़ता पूरी तरह संवेदनहीन। कभी राजनीति में फंसे, कभी दूसरों को धोखा दे पाने की सफलता पर गर्वित हम कितना खुश होते है, हम शहरी है, वक्त के साथ चल रहे है। मां-बाप के चेहरे पर पड़ी झुर्रियों के पीछे दर्द से अनजान, बच्चों की तोतली बोली से परेशान, दोस्तों के अधिकारों से हैरान, हम खुद को कहां और किस कदर खड़ा पाते है भगवान ही जाने, क्योकीं अब ये इंसानों के बस की बात नहीं रहीं, हम बहुत चालाक जो हो गये है इतने की रात को सोने पहले भी अपने कर्मो का लेखा जोखा करते वक्त मन की आंखों में धूल झोंकने से बाज नहीं आते। हम बेतहाशा किससे भाग रहे है, रिश्तों से दूर, परिवार से दूर, जिम्मेदारियों से दूर, प्यार से दूर, हर निगाह से दूर, सबसे बचते बचाते, बहुत कुछ खोते पर ना जानें क्या पाते। परिवार बंट गयें, रिश्तें एक आ॓र मुहं बाये खड़े, स्नेह, भावनायें एक नज़र की प्रतीक्षा में, ज़माना बदल जो गया है, लेकिन क्या इतना कि हम अपने घोंसले मे स्नेह और सोहार्द को नहीं संजो सकते, या हम इस धोखे में रहना चाहते है कि हम दूसरों के लिये नहीं बल्कि खुद से भाग रहे हैं।

देखिये देश का बंदरबांट

सरकार ने अलग तेलंगाना की मांग क्या मान ली देश के हर कोने से इस तरह की मांगो की बाढ़ सी आ गई है । गोरखालेंड, मिथिलांचल,पूर्वांचल,बुंदलखंड,हरितप्रदेश आदि अलग राज्य होने की मांग बढ़ती ही जा रही है, जिन क्षेत्रों में अलग होने की हसरत दबी हुई थी, तेलंगाना की मांग से उन्हें भी अलग होने की आवाज उठाने का मौका मिल गया है। पर सवाल ये भी है कि वाकई जनता भी अलग राज्य चाहती है या मात्र उन राजनेताओं के हाथ का मोहरा बनी हुई है जो अपना स्वार्थ पूरा करने के लिये इस तरह की मांगो को हवा दे रहे है।
ऐसा लगता है जिस तरह तेलंगाना पर सैद्धातिक सहमति बनते ही दूसरों क्षेत्रों से भी जो अलग राज्यों की मांग का जो दबाव सरकार पर पड़ रहा है इससे सवैंधानिक संकट के आलावा क्या उत्पन्न होगा ये तो भगवान ही जानें, पर बेचारी जनता राजनेताओं और उनके चमचों का खामियाजा हमेशा से भुगतती ही आ रही है।
हो सकता है अब आने वाले वक्त में ये भी सुनने में आये कमला नगर, करोलबाग,सा सन्त नगर या फिर सब्जीमंडी भी अब अलग राज्य बनने वाले है । पर सच में यह गंभीर प्रश्न है की राज्यों के बंटवारे के पीछे इन महानुभवों कारण वाकई विकास की बयार में पिछड़े इलाकों का पिछड़ापन दूर करना इन नेताओं की मंशा है,या वे राजनीतिक सहुलियत हासिल करके सत्ता के शिखर तक पहुंचना चाहते है, और राज्य के नाम पर कभी तेलंगना कभी मिथिला और कभी ...भेड़चाल में क्या क्या चाहते है।